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व्याख्यान २२ :
:: १९३: से जब वे निर्धन हो गये तो दोनोंने परस्पर विचार किया कि-हम द्रव्य रहित हो गये है इस लिये धनोपार्जन के लिये परदेश जाना चाहिये । ऐसा विचार कर उन्होंने शुभ दिवस को प्रयाण किया । मार्ग में जाते हुए उन्होने एक श्रावक के साथ पांच साधुओं को जाते हुए देखा । उनको उत्तम साथ जान कर वे भी. उनके साथ हो गये । कुछ दिन तक उनके साथ रहने से उनकी चेष्टा तथा वाणी से उन साधुओं को कुशीलवान जान कर नागिलने सुमति से कहा कि-"हमारा इन साधुओं के साथ रहना अनुचित है। क्यों कि मैंने श्रीनेमिनाथ के मुंह से एक बार ऐसा सुना था कि “ एवंविहे अणगाररूवे भवंति ते कुसीले, ते दिट्ठिए वि निरख्खिओ न कप्पंति-"इस प्रकार के साधु वेषधारी होते हैं, उनको कुशील समझना चाहिये, उनको देखना मी पाप है । अतः हे भाई ! हमको इन कुदृष्टि( मिथ्यादृष्टि) को छोड़ कर आगे चलना चाहिये ।" यह सुन कर सुमतिने कहा कि-" हे नागिल! तू वक्रदृष्टि से दोष देखनेवाला जान पड़ता हैं, अतः इन साधुओं के साथ बातें करना तथा गमन आदि करना मुझे योग्य प्रतीत होता हैं।" नागिलने उत्तर दिया कि-"हे भाई! मैं तो मन से भी साधु के दोष को ग्रहण नहीं करता परन्तु मैंने भगवान् तीर्थकर के पास कुशील साधु को नहीं देखने का निश्चय किया हैं। "सुमतिने कहा कि-" जैसा तू बुद्धिहीन १३