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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
प्रदान किया। इस पर वह बौद्धों का वेष लौटाने को वापस गया। उस समय भी मुरिने कहा कि-यदि तेरा मन विचलित हो जाय तो हमारा वेष वापस लौटाने को यहां आना। यह बात स्वीकार कर सिद्धमुनि बौद्धों के पास गया परन्तु उन्होंने फिर से कुतर्कद्वारा उसका मन फिरा दिया, अतः वह मुनि वेष लौटाने के लिये वापस सूरि के पास पहुंचा । उस समय भी बौद्धोंने उसे अपना वेष वापस लौटाने को आने की शर्त पर उसे जाने दिया था। इस प्रकार वह इकवीश वार आया और गया तो मूरिने यह विचार किया कि-ये बेचारा मिथ्यादृष्टि होकर दुर्गति में न पड जाय, उसको अत्यन्त तर्कमय ललितविस्तरा नामक शकस्तव की टीका बनाकर दी। उसको पढ़ कर संतुष्ट हो दृढ़ समकितयुक्त वह बोला किxनमोऽस्तु हरिभद्राय, तस्मै प्रवरसूरये । मदर्थं निर्मिता येन, वृत्तिललितविस्तरा ॥१॥
भावार्थ:--जिस गुरुने मेरे ही लिये ललितविस्तरा नामक वृत्ति रचा है उस हरिभद्र नामक श्रेष्ठ सूरि को मैं नमस्कार करता हूँ। . फिर उस सिद्धमुनिने सोलह हजार श्लोक के प्रमाण
x यह लोक उपमिति भव प्रपंच में दिया गया है ।