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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
की स्पर्धा किया करते थे और अपनी अपनी विद्वत्ता प्रगट कर वे दोनों राजसभा में काफी प्रतिष्ठित थे । एक बार बाण अपनी बहिन से मिलने के लिये मयूर के घर गया। रात्री के अधिक हो जाने से वह वहीं पर बाहर के कमरे में सो रहा । मयूर अपनी स्त्री सहित अन्दर के कमरे में सोया। रात्री में दम्पती के कुछ प्रेम-कलह होने से स्त्री क्रोधित हो गई । मयूरने उसको कई प्रकार से समझाया। सम्पूर्ण रात्री उसके मनाने में ही व्यतीत हो गई परन्तु वह स्त्री नहीं समझी (बाहर सोया हुआ बाण यह सर्व हाल सुनता रहा)। अन्त में प्रातःकाल होने आया तो मयूरने अपनी स्त्री को मानत्याग करने के लिये कहा किगतप्राया रात्रिः कृशतनु शशी शीर्यत इव, प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्मित इव । प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुद्धमहो, ___ अर्थ:-हे कृशतनु स्त्री ! (जिस का शरीर कृश है ऐसी) रात्री लगभग पूर्ण होने आई है, चन्द्र भी क्षीण होनेवाला है, यह दिपक निद्रा के वशीभूत होने से घूर्मित हुआ दीख पड़ता है, इसी प्रकार मैं भी तुझे अन्त में प्रणाम करता हूँ किन्तु फिर भी तू अपना मान त्याग नहीं करती। अहो ! तेरा कैसा क्रोध है ?