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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
संसार में भ्रमण किया, अतः हे भद्र ! जिस प्रकार लोक में कुशास्त्ररूपी पवन से आहत वृद्धि पाई हुई कषायरूपी अग्नि जल को (जड़-मूर्ख को) भी जला देती है, उसी प्रकार जिनवचनरूप अमृत से सिंचित तुमको कार्य करना अयुक्त है। __ इस प्रकार की गाथा को सुन कर श्री हरिभद्रसूरि उस पापकर्म से निवृत्त हुए और मानसिक पाप के प्रायश्चित्त के रूप में बौद्ध जितने अर्थात् चौदह सो चवालीस ग्रन्थों को नये रचने की प्रतिज्ञा की। उसमें से प्रथम उपरोक्त चार गाथा का अनुसरण कर क्रोध को सर्वथा निराश करनेवाला श्रीसमरादित्य केवली का चरित्र मागधी भाषा में गाथाबंध बनाया ।
मालपुर नगर में धन नामक एक जैन धर्मावलंबी श्रेष्ठी रहता था। उसी नगरी में सिद्ध नामक एक राजपुत्र (रजपूतक्षत्रिय) रहता था। वह जुआरी लोगों के साथ जुआ खेलते हुए हार गया। उसके पास उनको देने के लिये धन नहीं था अतः उन लोगोंने उसको एक बड़े खड्डे में ढकेल दिया। धनश्रेष्ठी को इस की सूचना मिलने पर उसने उन जुआरीयों को उसकी ओर से धन देकर उसे मुक्त कराया और उसको अपने घर ले जाकर नोकर रक्खा । अनुक्रम से बुद्धिमान सिद्धकुमार को श्रेष्ठीने अपना सर्व कार्यभार सौंप दिया और उसका एक कन्या के साथ विवाह भी कर दिया।