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व्याख्यान ३४ :
: ३११ :
गुणचंद वाणमंतर, समराइच्च गिरिसेण पाणोउ। एक्कस्स तओ मुस्को-ऽणंतो बीअस्स संसारो ॥३॥
जह जलइ जलं लोए, कुसस्थपवणाहओ कसायग्गी । तं जुत्तं न जिणवयणअमिअसित्तोवि पजलइ ॥४॥
भावार्थ:-गुणसेन राजाने अनिशर्मा ऋषि को मासक्षपण के पारणे का निमंत्रण दिया था किन्तु किसी कारणवश वह उसको पारणा न करा सका अतः अग्निशर्माने उस पर वैरभाव रख नियाणा किया। यह पहला भव । दूसरे भव में सिंह राजा को आनन्द (अग्निशर्मा का जीव) नामक पुत्रने विष देकर मारा । तिसरे भव में शीखी पुत्र को जालणी माताने विष खिला कर मारा । चोथे भव में धन्ना को धनश्री स्त्रीने मारा । पांचवे भव में जय को विजय भाई ने मारा । छठे भव में धरण नामक पति को लक्ष्मीवती स्त्रीने दारुण दुःख पहुंचाया। सातवें भव में सेन का विसने नामक पित्राइ भाईने पराभव किया। आठवें भव में गुणचन्द्र विद्याधर को वाणमंतरने कष्ट पहुंचाया। और नववें भव में समरादित्य (गुणसेन का जीव) मोक्ष सिधारे और गिरिसेनने (अग्निशर्मा का जीव) चंडाल बन कर अनन्त