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व्याख्यान ३३ :
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पादलिप्तसूरि का दृष्टान्त
अयोध्या नगरी में नामहस्ती नामक सूरि के पास पड़िमा नामक श्राविका के पुत्रने आठ वर्ष की वय में दीक्षा ग्रहण की। एक बार वह क्षुल्लक (बालक) साधु श्रावक के घर से कांजी ( चावल का पानी ) बेहर लाकर गुरु के पास आकर खड़ा हुआ । उसको गुरु महाराजने पूछा कि - हे वत्स ! क्या तू आलोचना जानता है ? ( यहां गुरु के प्रश्न करने का यह हेतु था कि - सर्व प्रकार की कांजी अचित्त नहीं होती, अतः यह कांजी सचित्त अचित्त का विचार कर लाया है या क्यों कर १ ) यह सुन कर क्षुल्लकने कहा किहे पूज्य गुरु ! मैं आलोचना जानता हूँ जिस में ( आलोचना शब्द में ) 'आ' यह उपसर्ग है और इसका अर्थइषदर्थे क्रियायोगे मर्यादाऽभिविधौ च यः । अर्थात् थोड़ा चारों ओर, मर्यादा, अभिविधि आदि होता है तथा यह क्रिया के साथ भी आता है और लोचना अर्थात् देखना अर्थात् चारों ओर देखना इस प्रकार आलोचना का अर्थ मैं जानता हूँ और भी ।
अंतंवत्थीए, अपुष्फियं पुष्पदंतपंतीए । नवसालिकंजियं नवड्ढ हूइ कुंड एण मह दिन्नं ॥ १ ॥ *
X इस गाथा का अर्थ बराबर नहीं है ।