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व्याख्यान ३२ :
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भावार्थ:-विश्वामित्र और पराशर आदि ऋषि भी जो कि केवल जल और पत्तों मात्र का आहार करते थे वे यदि स्त्री के सुन्दर मुखकमल को देख कर मोहित हो गये तो जो लोग घृत, दूध और दही संयुक्त आहार करते हैं वे इन्द्रियों का निग्रह किस प्रकार कर सकते है ? अहों ! देखों ! कितना भारी दंभ है ? अर्थात् जैनी कितना दंभ करते हैं !
यह सुन कर सूरिने उत्तर दिया कि-हे राजा ! शील का पालन करने में आहार या नीहार कारणभूत नहीं परन्तु मन की वृत्ति ही कारण है; क्यों कि
सिंहो बली द्विरदसूकरमांसभोजी, संवत्सरेण रतिमेति किलैकवारम् । पारापतः खरशिलाकणमात्रभोजी, कामी भवत्यनुदिनं ननु कोऽत्र हेतुः ॥१॥
भावार्थ:--बलवान सिंह, हाथी और सूकर का मांस खाता है फिर भी वह एक वर्ष में एक ही बार कामक्रीड़ा करता है और मुर्गे मरडिया कंकर और जुआर के दाने खाते हैं फिर भी वे सदैव कामी ही रहते हैं । बतलाइये किउसका क्या कारण है ?
यह सुन कर कुवादियों का मुंह श्याम हो गया। इस