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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : ता गड़यंति वाइंदगयघड़ा मयभरेण उप्पिच्छा। जावन्न पायलित्तयं, पंचवयणनाऊ समुल्लसई ॥१॥
भावार्थ:-जब तक पादलिप्ताचार्यरूपी सिंह की पूछ उल्लसित नही हुई (सिंह की गर्जना नही हुई) तब तक ही मद के समूह से गर्विष्ट दुःप्रेक्ष्य बड़े बड़े वादीरूपी हस्तियों का समूह गर्जन करता है।
यह सुन कर राजाने अपने प्रधान को पादलिप्ताचार्य. को बुलाने भेजा । वे सूरि को लेकर आरहे थे कि-सर्व विद्वानोंने एकत्रित हो कर एक घृत से भरा हुआ थाल मूरि के सामने भेजा । सूरिने उस में एक मई डाल कर वापस लौटा दिया । इस पर राजाने पंडितो से उसका भाव बतलाने को कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि-हे राजा ! इस में हमारा यह अभिप्राय था कि-यह नगर घृत से परिपूर्ण थाल के सदृश विद्वानों से परिपूर्ण है अतः इस में तुम्हारा प्रवेश क्यों कर हो सकेगा ? इस के उत्तर में सूरिने उस घृत से परिपूर्ण थाल में सूई डाल कर वापिस लौटा कर अपना अभिप्राय जाहिर किया कि-जिस प्रकार घृत से परिपूर्ण थाल में सूक्ष्मता के कारण इस सूई का प्रवेश हो गया है उसी प्रकार मैं भी इस नगर में प्रवेश कर सकूँगा। यह सुन कर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह सर्व पंडितो सहित सूरि का आगमन करने को गया और अत्यन्त समारोह के साथ