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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : भावार्थ:-लाल वर्ण के वस्त्रवाली आपुष्पित (रुतु में नहीं आइ हुई) और पुष्प की कली सदृश दांतवाली नवोढ़ा स्त्रीने यह नवीन उर्मिका के भात की कांजी मुझे बहराई है। इस प्रकार श्रृंगार के वचन सुन कर गुरुने क्रोधित होकर कहा कि-अरे पलित्त (प्रलिप्त) अर्थात् प्रकर्षद्वारा (पाप से) लिप्त ! तू यह क्या बोलता है ? इस पर उस क्षुल्लक साधुने गुरु के चरणकमलों में नमन कर कहा किगुरुचरणे नमिऊं, विन्नवइ देह पसिऊण । अहियं एगं मत्तं, जेणं हवोमि पालित्तं ॥१॥
भावार्थ:-हे पूज्य ! मेरे पर कृपा कर पलित्त शब्द में एक "आ" की मात्रा और लगाईए कि-जिस से मैं पालित्त (पादलिप्त) बनूं । अर्थात् पाद अर्थात् पैर, लिप्त अर्थात् लिया हुआ, अर्थात् पैर के लेप करने से आकाश में उड़ सकूँ ऐसी विद्यावाला बनूं । यह सुन कर उसकी बुद्धि से प्रसन्न होकर गुरुने उसको पादलेपनी विद्या प्रदान की और अनुक्रम से उसको योग्य समझ सूरिपदवी प्रदान कर उसका नाम पादलिप्तसूरि रक्खा ।
पादलिप्तसरि विहार करते हुए एक बार खेटकपुर में पहुंचे, जहां पर उसे जीवाजीवोत्पत्तिप्राभृत, निमित्तप्राभृत, विद्याप्राभृत और सिद्धिप्रामृत ये चार शास्त्रे मीले । सूरिने