________________
व्याख्यान ३२ :
: २९५ :
राजा से कहा कि-हे राजा ! तूने परंपरागत रीति को क्यों छोड़ दिया ? राजाने उत्तर दिया कि-हे देवी ! मैं जीतेजी तो एक कोड़ी मात्र का भी वध नहीं करूंगा। यह सुन कर देवी क्रोधित हो राजा के मस्तक त्रिशूल मार अदृश हो गई। उस देवी के प्रहार से राजा के शरीर में तत्काल कुष्ट व्याधि उत्पन्न हो उसकी असह्य वेदना होने लगी, इस से राजाने अग्नि में प्रवेश करने का विचार किया। उदायन मंत्रीने इसका निषेध कर वह सब वृत्तान्त सूरि को जाकर कहा । सूरिने जल मंत्र कर उदायन को दिया जिस को राजा पर छिड़कने से राजा का देह स्वर्ण की कान्ति सदृश सुन्दर हो गया। प्रातःकाल राजा गुरु को वन्दना करने को गया तो उपाश्रय में प्रवेश करते हुए राजाने एक स्त्री का करुणाजनक रुदन सुना इसलिये वह उसके पास गया तो क्या देखता है कि-रात्री को प्रत्यक्ष होनेवाली देवी स्वयं वहां रुदन कर रही है। राजाने गुरु से जाकर कहा कि-हे पूज्य ! स्थंभ में बंधी हुई इस स्त्री को छोड़ दीजिये । सूरिने उत्तर दिया कि-हे राजा ! इस से जो कुछ मांगना हो वह मांग लें । इस पर राजाने अपने अढारह देशों में जीवरक्षा के लिये कोतवाल( रक्षक)का कार्य करने को कहा । देवीने ऐसा करना स्वीकार किया अतः उसको बंधनमुक्त किया गया और वह राजभवन के द्वार पर जाकर रक्षक का कार्य करने लगी।