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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : - एक बार सरिने राजसभा में स्थूलभद्रसूरि की प्रशंसा की किवेश्या रागवती सदा तदनुगा षड्भी रसैर्भोजनं, सौधं धाम मनोहरं वपुरहो नव्यो वयःसंगमः । कालोऽयं जगदाविलस्तदपि यः कामं जिगाया
दरात्, तं वंदे युवतिप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलिभद्रं मुनिम् ॥
भावार्थः–वेश्या जिसपर राग रखनेवाली और निरन्तर उसीका अनुसरण करनेवाली थी, सदैव षड्स भोजन खाने को मिलता था, कामशास्त्र के चित्रों से चित्रित महल में निवास था, मनोहर शरीर, युवावस्था और वर्षाऋतु थी फिर भी जिसने कामदेव पर आदर सहित विजय प्राप्त की ऐसे स्त्रीजन को प्रतिबोध करने में कुशल श्री स्थूलभद्र मुनि को मैं वन्दन करता हूँ। ' इस को सुन कर राजा के समीपस्थ द्वेषी ब्राह्मण बोले किविश्वामित्रपराशरप्रभृतयो ये चाम्बुपत्राशिनस्तेऽपिस्त्रीमुखपड्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः आहारं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवास्तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो दम्भः समालोक्य
ताम् ॥ १॥