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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
है वैसा ही वह तीर्थकर भी होगा कि जिसने तुझे ऐसा निषेध किया है ।" इस प्रकार कहते हुए सुमति के मुंह को नागिलने अपने हाथ से बंध कर दिया और कहा कि - " बन्धु ! अनन्त सागर के कारणरूप ऐसे वाक्य तू न बोल । तीर्थंकर की आशातना न कर । इन साधुओं में बालतपस्वीपन जान पड़ता है क्यों कि ये अनेक गुप्त विषयादि दोषों से दूषित है अतः मैं तो इनका संग छोड़ कर जाता हूँ। " सुमतिने कहा कि- " मैं तो प्राणान्त होने पर भी इनका संग नहीं छोडूंगा । " ऐसा कह कर नागिल अकेला उनसे जुदा हो गया और सुमतिने उन साधुओं के पास दीक्षा ग्रहण की । उन पांच साधुओं में से चार साधु तो अनेक भव में परिभ्रमण कर अन्त में मोक्षपद को प्राप्त करेंगे परन्तु पांचवां अभव्य होने से अनन्त सागर में भटकेगा ।
श्री गौतम गणधर ने जिनेश्वर से पूछा कि हे भगवान ! सुमति भव्य है या अभव्य १ भगवानने कहा कि - हे गौतम! सुमति का जीव भव्य है । गौतमने पूछा कि वह इस समय किस गति में हैं ? भगवानने कहा कि हे गौतम ! कुशील की प्रशंसा तथा जिनेश्वर की आशातना करने से वह परमाधार्मिक देवरूप से उत्पन्न हुआ है । गौतमने पूछा कि - हे भगवन् ! अब उसका क्या होगा ? प्रभुने उत्तर दिया कि हे गौतम ! उसने अनन्त संसार उपार्जन किया हैं इस लिये अनन्तकाल तक भटकेगा, फिर भी मैं संक्षेप से कहता हूँ उसको