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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : कः कँठीरवकंठकेसरसटाभारं स्पृशत्यंघ्रिणा, . कः कुन्तेन शितेन नेत्रकुहरे कण्डूयनं कांक्षति । कः सन्नह्यति पन्नगेश्वरशिरोरत्नावतंसश्रिये, यः श्वेताम्बरशासनस्य कुरुते वन्द्यस्य निन्दामिमाम्
भावार्थ:-ऐसा कौन पुरुष होगा कि-जो सिंह के गर्दन की केशवाली को पैरों से स्पर्श करेगा ? ऐसा कौन पुरुष होगा कि-जो तीक्ष्ण भाले से नेत्र के गोलक की खाज को मिटाने की इच्छा करेगा ? और ऐसा कौन पुरुष होगा कि-जो शेषनाग के मस्तक की मणि को लेकर अलंकार बनाने को तैयार होगा ? ऐसा पुरुष वह ही हो सकता है किजो श्वेताम्बर के पूज्य शासन की इस प्रकार निन्दा करता हो । फिर रत्नाकर नामक साधुने भी एक श्लोक लिखा किनग्नैर्निरुद्धा युवतीजनस्य, यन्मुक्तिरत्नं प्रकटं हि तत्त्वम् । तत्किं वृथा कर्कशतर्ककेलौ, तवाभिलाषोऽयमनर्थमूलम् ॥२॥
भावार्थ:-अहो नग्न लोगोंने स्त्रियों का मुक्तिरूपी रत्न बंध कर के ही अपना जो तच्च प्रगट किया है वह ही काफी है, अब तू क्यों कठिन शास्त्र की क्रीड़ा में व्यर्थ अमि