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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : इत्थी हुवा वि सिज्झई, इयमयं सियवयस्सx ॥ १॥
भावार्थ:-तीर्थकर केवली होने पर भी आहार करते हैं। वस्त्र धारण करनेवाला का मोक्ष होता है और स्त्री भी सिद्धि को प्राप्त कर सकती है ऐसा श्वेताम्बर मत है अथवा देवसरि का यह मत है।
फिर निर्णय के दिन सिद्धराजा की सभा में छ ही दर्शन के पंडित सभ्यरूप से बैठे। उस समय कुमुदचन्द्र वादी गाजेबाजे सहित राजसभा में आया और राजाद्वारा मानपूर्वक दिये हुए ऊंचे सिंहासन पर चढ़ कर बैठा। श्री देवमूरि भी श्री हेमचन्द्राचार्य सहित राजसभा में आकर एक ही सिंहासन पर दोनों बैठे । बालावस्था से कुछ मुक्त हुए श्री हेमचन्द्रसूरि को देख कर वृद्धावस्था को पहुंचे हुए दिगम्बराचार्यने हँसी में कहा कि-"पीतं तकं भवता-तूने छाश पी है।" यह सुन कर हेमाचार्यने तुरन्त ही उत्तर दिया कि"अरे जड़मति ! ऐसा असमंजस भाषण क्यों करता है ? श्वेतं तक्रं, पीता हरिद्रा । छाश तो श्वेत सफेद होती है और पीत (पीली) तो हलदर होती है (यहां पर दिगम्बरने पीत
x 'इस चोथे पद के स्थान में मयमेयं देवसूरिणं' एसा पद भी किसी प्रत में है।