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व्याख्यान २९ :
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और उस बिंब की पूजा के लिये उसने सो गांव भेट किये । फिर विक्रम राजाने सूरि की प्रशंसा करते हुए कहा कि - हे गुरु ! तुम्हारे सदृश महर्षि दुनियां में कैसे हो ? कोई भाग्य से ही होगा क्यों कि
अहयो बहवः सन्ति, भेकभक्षणदक्षिणाः । एकः स एव शेषः स्यात्, धरित्रीधरणक्षमः ॥ १ ॥
भावार्थ:-- मेड़ को भक्षण करने में प्रवीण सर्प तो दुनियां में बहुत से हैं परन्तु पृथ्वी को धारण करने में समर्थ शेषनाग तो एक ही है ।
आदि गुरु की स्तुति कर राजा अपने स्थान को चला गया । इस प्रकार श्री जैनशासन की बहुत उन्नति होने से श्री संघ सूरि पर प्रसन्न हुआ और सूरि की आलोयणा के शेष पांच वर्षों की माफी देकर उनको वापिस सूरिपद पर स्थापन किये ।
एक बार कुवादीरूपी अंधकार का नाश करने में सूर्य सदृश सूरि ओंकारपुर गये । वहां के श्रावकोंने कहा कि - हे स्वामी ! यहां मिथ्यात्वियों का अधिक जोर होने से वे जिनचैत्य नहीं बनाने देते । इस पर सूरि चार श्लोक बना कर उनको अपने हाथ में लेकर राजा विक्रम के सभा में गये और द्वारपाल के हाथ में एक श्लोक देकर राजा को भेट करने को कहा। उसने वह श्लोक राजा को जाकर दिया जो इस प्रकार था ।