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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : कीर्तिस्ते जातजाड्येव, चतुरंभोधिमजनात् । आतपाय धरानाथ ! गता मार्तंडमंडलम् ॥४॥ ___ भावार्थ:-हे राजा ! तुम्हारी कीर्ति चारों समुद्रो में मग्न होने से मारे ठंडक के मानो गर्मी ग्रहण करने को सूर्यमण्डल को चली गई है अर्थात तुम्हारी समुद्र पर्यंत विस्तृत कीर्ति का स्वर्गलोक में भी गान होता है।
इन चारों श्लोक को चारों दिशाओ में घूम कर सुनने से राजा अत्यन्त प्रसन्न हो सूरि से बोला कि-हे सूरि ! मैंने चारों दिशाओ में घूम कर अपना चारों दिशाओं का राज्य तुम को दे दिया है इस लिये तुम उसे ग्रहण करो । सूरिने उत्तर दिया कि-हे राजा ! हम निग्रंथ को राज्य से क्या प्रयोजन ? इस पर राजाने पूछा कि-तो आप क्या चाहते है ? सूरिने उत्तर दिया कि-मेरी यह अभिलाषा है किओंकारपुर में महादेव के प्रासाद से ऊंचा एक चार द्वार का प्रासाद बना कर उसमें श्री पार्श्वनाथ के बिंब की स्थापना कीजिये। राजाने इस को सहर्ष स्वीकार कर वैसा ही किया।
फिर सूरि विचरते विचरते दक्षिण दिशा में गये, जहां प्रतिष्ठानपुर में अपने आयुष्य का अन्त समीप आया हुआ जानकर अनशन ग्रहण कर स्वर्ग सिधारे । सूरि के मृत्यु के समाचार चितोड़गढ़ भेजने के लिये वहां के संघने एक