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श्रा उपदशनासार
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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : लोगोंने जैनधर्म की निन्दा करना त्याग दिया । मुनिने भी उत्कृष्ट तपद्वारा सर्व कर्मों का क्षय कर मोक्ष पद को प्राप्त किया।
हे भव्य जीवों ! तुम को भी यदि मोक्षसुख की अभि. लाषा हो तो इस काष्ठ मुनि के अद्भुत चरित्र को पढ़ कर विविध प्रकार की तपस्या कर जिनधर्म की उन्नति करना चाहिए । इत्युपदेशप्रासादे तृतीयस्तंभे एकत्रिंशत्तमं
व्याख्यानम् ॥ ३१ ॥
व्याख्यान ३२ वां
छठा विद्याप्रभावक विषय में मंत्रयन्त्रादिविद्याभियुक्तो विद्याप्रभावकः । संघाद्यर्थे महाविद्या, प्रयुञ्जयति नान्यथा ॥१॥
भावार्थ:--जो मंत्र, यंत्र आदि विद्या से युक्त हों उन को विद्याप्रभावक कहते हैं । विद्याप्रभावक उनकी विद्या का उपयोग केवल संघ आदि कार्य के लिये ही करते हैं अन्यथा नहीं। इस पर निम्न लिखित श्रीहेमचन्द्राचार्य का दृष्टान्त प्रसिद्ध है
श्री हेमचन्द्रसूरि की कथा धंधुका ग्राम में मोढ़ ज्ञाति में उत्पन्न चांगदेवने देवचन्द्रसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की। गुरुने अनुक्रम से उस