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श्री उपदेशप्रासादभाषान्तर : मुनिने चौक (मैदान) में जा एक मूसल को जमीन पर खड़ा कर प्रासुक जल से सिंचना आरम्भ किया औरअस्मादृशा अपि जड़ा, भारति! त्वत्प्रसादतः। भवेयुवादिनः प्राज्ञा, मुशलं पुष्प्यतां तदा ॥१॥
भावार्थ:-हे सरस्वती देवी ! हमारे सदृश जड़ मनुष्य भी जब तेरे प्रसाद से विद्वान वादी हो जाते हैं तो इस मूसल को भी पुष्पित बना ।
यह श्लोक पढ़ कर उसने उस मूसल को पत्र, पुष्प और फलवाला (नवपल्लवित) बना दिया। उसके इस चमत्कार को देख कर गरुड़ के नाम से सर्प के सदृश वादी लोग उनका नाम सुनते ही भगने लगें। उनकी योग्यता देख कर गुरुने उनको सूरिपद प्रदान किया।
उस समय देवर्षि नामक ब्राह्मण के देवश्री नामक स्त्री से उत्पन्न हुए सिद्धसेन नामक ब्राह्मण पंडित का राजा विक्रम की सभा में काफी मान था । उसके मिथ्यात्वी होने से अपनी बुद्धि के अतिशयपन के कारण वह समस्त संसार को उसके सामने तृण समान समझता था । कहा भी है किवृश्चिको विषमात्रेणाप्यूज़ वहति कंटकम् । विषभारसहस्रेऽपि, वासुकिनँव गर्वितः ॥१॥
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