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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
बतलाइये । इस पर गुरुने सरसव मंत्रद्वारा उसके शत्रुसैन्य का विनाश किया और देवपाल राजाने जैनधर्म अंगीकार कर आचार्य का एकान्त भक्त बना । बाद में राजा के आग्रह से सूरि सदैव सुखासन में बैठ कर बंदीजनों से स्तुति कराते हुए राजसभा में जाने लगे। इस प्रकार के उनके प्रमाद की बात सुन कर उनके गुरु वृद्धवादी वेष बदल कर वहां आये। उन्होंने उस समय सिद्धसेनमरि को राजसभा में जाने को तैयार देखा इस लिये उन्होनें उसके सुखासन के एक दंड को अपने कंधे पर उठा लिया । उस वृद्ध को अस्तव्यस्त चलते हुए देख कर मूरिने गर्विष्ट शब्दों में कहा कि-हे वृद्ध! भूरिभारभराक्रान्ते, स्कन्धोऽयं तव बाधति । न तथा बाधते स्कन्धो, बाधति बाधते यथा ॥१॥
भावार्थ:--क्या अधिक भार होने से तेरे कंधे में पीड़ा होती है ? यह सुन कर वृद्ध वादी बोला कि-हे सरि !
जैसा तुम्हारा 'बाधति' प्रयोग मुझे बाधा पहुंचाता है वैसा मेरा कन्धा मुझे बाधा नहीं पहुंचाता । इस से वृद्धः वादीने ऐसा उत्तर दिया कि-हे सूरि ! तुमने जो 'बाधति' ऐसे अशुद्ध शब्द का प्रयोग किया है उस से मुझे बड़ा दुःख होता है क्यों कि-"बाधते" बोलना चाहिये ।
यह सुन कर सूरि को शंका हुई कि-अवश्य ये मेरा गुरु होना चाहिये क्यों कि-मेरे गुरु के अतिरिक्त अन्य कोई