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व्याख्यान २९ :
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. एक बार सूरि विहार करते करते चितोड़गढ़ पहुंचे। वहां एक ऐसा स्तंभ था कि जिसके अन्दर पूर्व की आम्नायवालोंने पुस्तकों को गुप्तरूप से छिपा रक्खा था। उसको जल, अग्नि, शस्त्र आदि से अभेद्य औषधियों से लिप्त किया देख कर सूरिने उन सब औषधियों का उनकी गंधद्वारा पत्ता चलाकर उनकी प्रतिस्पर्धी औषधियोंद्वारा मिश्रित जल छिड़क कर उस स्तंभ को कमल के सदृश विकसित किया (खोला)। फिर उस में से एक पुस्तक निकाल कर उसका प्रथम पत्ता पढ़ा तो उस में सरसव विद्या और स्वर्ण विद्या इन दो विद्याओं का हाल पढ़ा। प्रथम विद्या का यह चमत्कार था कि-उस मंत्रद्वारा मंत्रित जितने सरसव के दाने जलाशय में डाले जाते उतने ही घुड़स्वार उस में से निकल कर शत्रुसैन्य का विनाश कर वापीस अदृश्य होजाते थे । दूसरी विद्या ऐसी थी कि-उस मंत्र से मंत्रित चूर्ण के योग से कोटी स्वर्ण उत्पन्न होता था। फिर दूसरा पत्ता पड़ने लगे कि-एक देवीने मूरि को पढ़ने से निषेध कर उनके हाथ से पुस्तक छीन ली और वह स्तंभ भी ज्यों का त्यों वापस मील गया ।
वहां से विहार कर सूरि कुमारपुर पहुंचे जहां के राजा देवपालने भूरि को नमन कर प्रार्थना की कि-हे गुरु ! मेरे सीमाप्रान्त के राजा मेरे राज्य को लेने की कोशिष में है इसलिये कृपया मुझे मेरे राज्य की रक्षा करने का उपाय