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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
बकवादी जान पड़ता है, समझता बूझता तो कुछ नहीं, केवल भैंस के समान जोर जोर से चिल्ला कर कानों को बहरा बना देता है, अतः यह तो मूर्ख ही प्रतीत होता है इसलिये हे वृद्ध ! आप कुछ कर्णप्रिय वार्ता सुनाइयें । यह सुन कर अवसर को जाननेवाले सूरिने नाटक के योग्य संगीत के अनुसार गण, छन्द, तालद्वारा ऊँचे स्वर से ताली बजाते हुए कहा कि-- न वि मारिइं न वि चोरिइं,परदारागमण निवारिइं। थोवा थोवं दाइई, तउ सम्गि टगाटग जाइयइं ॥१॥ गेहु गोरस गोरड़ी, गज गुणिअण ने गान । छ गग्गा जो इहां मीले, तो सग्गह शुं शुं काम ॥२॥ चूड़ो चमरी चुंदडी, चोली चरणो चीर । छहुं चच्चे सोहे सदा, सोहव तणुं सरीर ॥३॥
भावार्थ:--किसी प्राणी को नहीं मारने, किसी का धन नहीं चुराने, परस्त्रीगमन नहीं करने और थोड़े में से थोड़ा भी दान देने से शीघ्र ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है। गोधम (गउं), गोरस (दूध, दहीं आदि), गोरड़ी (स्त्री), गज (हाथी), गुणीजन की गोष्टि और गान (संगीत) ये छ गकार यदि यहीं पर किसी को उपलब्ध हो तो फिर स्वर्ग से उसे क्या प्रयोजन ? चूडा, चमरी (केश), चुंदड़ी,