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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
को कहा । इस पर देवसूरिने उत्तराध्ययन की वृत्ति में वर्णित चोराशी विकल्प उत्तर में रक्खें । उन विकल्पों को समझने में भी अशक्त दिगम्बराचार्यने घुमा फिरा कर फिर से अपना पक्ष पेश किया। सरिने उसके सर्व पक्षों का अनेक युक्तियों द्वारा खण्डित कर दिया इस से वह अत्यन्त तिरस्कृत हुआ। अतः दिगम्बरने स्वयं ही सभा के समक्ष कहा कि-इस देवसूरि से मेरा पराजय हुआ । यह सुन कर राजाने पराजित को दूसरा मार्ग बतलाने के लिये उस दिगम्बर को सभा के पीछले मार्ग से निकाल दिया । कुछ समय पश्चात् कुमुदचन्द्र आर्तध्यानद्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ । राजाने श्री देवसूरि को बड़े उत्सवपूर्वक अत्यन्त आदर सत्कार कर उपाश्रय की ओर विदा किया। उस समय जिनशासन की बड़ी भारी प्रभावना हुई।
"स्याद्वादरत्नाकर" नामक ग्रन्थ के रचनेवाले और वादीरूप हाथीयों के पराजय करने में सिंह समान श्रीदेवसूरिने दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र की पराजय कर जिनशासन की शोभा को बढ़ाया । इसी प्रकार सब को अपनी शक्तिअनुसार जिनशासन की शोभा बढ़ाने का प्रयास करना चाहिये । इत्युपदेशप्रासादे द्वितीयस्तंभे अष्टविंशतितमं
व्याख्यानम् ॥ २८ ॥