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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : खद्योतद्युतिमातनोति सविता जीर्णोर्णनाभालयच्छायामाश्रयते शशी मशकतामायान्ति यत्राद्रयः। इत्थं वर्णयतो नभस्तव यशो जातं स्मृतेर्गोचरं, तत्तस्मिन् भ्रमरायते नरपते! वाचस्ततो मुद्रिता ॥१
भावार्थ:--हे राजा! तुम्हारे यश के सामने सूर्य खद्योत (पतंगिये) के समान, चन्द्र जीर्ण करोड़ीया के पड़ के समान
और पर्वत मच्छर के समान प्रतीत होता है। अन्त में तुम्हारे यश का वर्णन करते हुए आकाश मेरे स्मरणपथ में आया परन्तु वह आकाश भी तुम्हारे यश के सामने एक भ्रमर सदृश छोटा जान पड़ता है, अतः तुम्हारे यश के वर्णन के लिये कोई भी वस्तु नजर नहीं आने से मेरी जिह्वा ही मूक रह जाती है।
इस श्लोक के अन्त में-वाचस्ततो मुद्रिता-मेरी वाणी बन्द हो जाती है-ऐसा अप शब्द बोलने से सभास्थित प्रविण पंडितोंने विचारा कि-"यह वादी अपने हाथों से ही बंध जायगा-हार जायगा ।" ऐसा विचार कर उनको आनन्द हुआ। तत्पश्चात् देवाचार्यने राजा को इस प्रकार आशीर्वाद दिया । . नारीणां विदधाति निवृतिपदं श्वेताम्बरप्रोल्लसत्कीर्तिस्फातिमनोहरं नयपथो विस्तारभंगीगृहम् ।