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. २१०: - श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
भावार्थ:--यदि इस इच्छा से पशु मारे जाते हो कि यज्ञ के लिये मारे हुए पशुओं को स्वर्गप्राप्ति होती है तो यज्ञ में यजमान अपने पिता को ही क्यों नहीं मार डालता ?
इस प्रकार यज्ञ की निन्दा सुनकर राजाने धनपाल की ओर वक्रदृष्टि से देख कर उसके समस्त कुटुम्ब के निग्रह करने का विचार किया। धनपालने इस अभिप्राय को जानते हुए भी अपने सत्य बोलने के नियम को नहीं छोड़ा।
आगे बढ़ने पर राजा किसी शिवालय में गया, जहां पर धनपाल के अतिरिक्त सबों ने महादेव को नमस्कार किया। इस पर राजा ने धनपाल से पूछा कि-हे धनपाल! तू इन महादेव को नमस्कार क्यों नहीं करता ? इस पर उसने निःशंकपन से कहा कि--
जिनेन्द्रचन्द्रप्रणिपातलालसं, मया शिरोऽन्यस्य न नाम नाम्यते । गजेन्द्रगल्लस्थलदानलालसं, शुनीमुखे नालिकुलं निलीयते ॥ १ ॥
भावार्थ:--हे राजा! जिनेन्द्ररूपी चन्द्र को नमस्कार करने का लालायित मेरा सिर मैं अन्य किसी के सामने नहीं झुकाता, क्यों कि मदोन्मत्त हस्ती के गंडस्थल में से