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व्याख्यान २५ :
: २२७ : बोहत्तरीकलापंडिया विपुरिसा अपंडिया चेव । सव्वकलाण वि पवरं जेधम्मकलं न याणंति ॥१॥
भावार्थ:-जो पुरुष सर्व कलाओं में प्रधान धर्म कला को नहीं जानते वे बहतर कलाओं के पंडित होते हुए भी अपंडित (मूर्ख) ही है। __यह सुन कर कमलने कहा कि-हे पिता! जीव कहां है ? स्वर्ग कहां है ? और मोक्ष भी कहां है ? ये सब आकाश को आलिंगन करने और घोड़े के शींग के सदृश केवल असत्य ही है । तप, संयम आदि क्रियाओं की तुम प्रशंसा करते हो परन्तु वे तो केवल अज्ञानी मनुष्यों को डराने के लिये ही कही गई है, आदि कह कर कमल ग्राम में घूमने को चल पड़ा।
एक बार उस नगर में शंकर नामक सूरि आये जिनके पास श्रेष्ठी कमल को लेकर गया । श्रेष्ठीने गुरु को वन्दना कर कमल को बोध देने की प्रार्थना की । इस पर गुरुने कमल से कहा कि-हम जो धर्मोपदेश करें उस में तू बीच में मत बोलना, इधर उधर मत देखना, केवल मात्र हमारे सन्मुख देख कर स्थिर चित्त से श्रवण करना । ऐसा कह कर गुरुने धर्मकथा कहना आरंभ किया । अन्त में कमल को पूछा कि-हे वत्स ! तू क्या समझा ? तूने कुच्छ जाना या नहीं ? उसने उत्तर दिया-हे पूज्य ! मैंने कुछ समझा और