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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : किये हैं परन्तु अब यह मर कर प्रथम नरक में जावेगा। यह सुन कर नन्दिषेण कुमारने प्रतिबोध प्राप्त कर श्रावक धर्म अंगीकार किया।
बाद में नन्दिषेण जब चारित्र ग्रहण करने को तैयार हुआ तो शासनदेवने उसको कहा कि अभी तेरे बहुत से भोग कर्म शेष हैं अतः अभी दीक्षा ग्रहण न कर । ऐसा निषेध करने पर भी नन्दिषेणने दीक्षा ग्रहण करली । जिनेश्वरने भी उसको निषेध किया परन्तु फिर भी उसने अपना आग्रह नहीं छोड़ा और हर्षपूर्वक चारित्र ग्रहण कर उग्र तपस्या करता हुआ प्रभु के साथ विहार करने लगा । अनुक्रम से नन्दिषेण मुनि अनेकों सूत्रार्थ के ज्ञाता हुआ।
कुछ समय पश्चात् भोगावली कर्म के उदय होने से नन्दिषेण मुनि को कामविकार उत्पन्न होने लगा। उसको रोकने के लिये उसने बहुत उग्र तपस्या की, आतापना ली किन्तु फिर भी इन्द्रियों का विकार शान्त नहीं हुआ इसलिये चारित्र की रक्षा के लिये उसने पर्वत पर चढ़ कर गिर मरने का विचार किया परन्तु ज्योही वह गिरने लगा कि-शासनदेवीने उसको उठा लिया और कहां कि-तू व्यर्थ क्यों मरता है ? बिना भोग भोगे तू मर नहीं सकता । ऐसा कह कर देवी अदृश्य हो गई । फिर एक दिन उस मुनिने छ? के पारणे के लिये ग्राम में घूमते हुए अनजानपन से