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व्याख्यान २६ :
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एक गणिका के घर में प्रवेश कर धर्मलाभ दिया । यह सुन कर वेश्या हँसती हँसती बोली कि-हे साधु ! हम को धर्मलाभ से कोई प्रयोजन नहीं है, यहां तो अर्थलाभ चाहिये । यह सुन कर यह स्त्री मेरी हँसी उड़ाती है ऐसा विचार कर अभिमान से मुनिने ऊपर से एक तृण खिंचकर लब्धिद्वारा दश करोड़ रत्न की वृष्टि की, जिसको देखकर आश्चर्यचकित हुई वेश्या उनको चरणकमलों में भ्रमर के सदृश लिपट कर बोली कि-हे प्राणनाथ ! अनाथ और तुम्हारे पर अनु. रक्त हुई मुझे न त्यागीयें। आदि अनेक प्रार्थना के वचन सुन कर देवीद्वारा कहे हुए भोगकर्मों का स्मरण कर उसके वचनो से रक्त हो उन्होंने उस वेश्या को अंगीकार किया; परन्तु उस समय उन्होंने ऐसा अभिग्रह लिया कि यहां आनेवाले कामी पुरुषों को धर्मोपदेश देकर उन में सदैव दश पुरुषों को प्रतिबोध कर, उनको दीक्षा लेने को भेजने पश्चात् मैं भोजन करुंगा। फिर मुनिवेष त्याग कर वेश्या के साथ कामक्रीड़ा करते हुए वहां रहें और सदैव दश मनुष्यों को प्रतिबोध कर दीक्षा ग्रहण करने के लिये प्रभु के पास भेजने लगे । इस प्रकार बारह वर्ष व्यतीत हो गये । बाद में एक दिन उन्होनें नव मनुष्यों को प्रतिबोध किया किन्तु दशवां एक स्वर्णकार को किसी भी प्रकार से प्रतिबोध नहीं हुआ। भोजन समय व्यतीत हो गया। वेश्याने दो बार भोजन बनाया