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व्याख्यान २४ :
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श्रेष्ठीने जीवन से उबका कर एक लक्ष द्रव्य की हांडी चढ़ा उस में विष डाल खाकर मरने का निश्चय किया था कि उसी समय सूरि उसीके घर गोचरी के लिये गये । गुरु को वन्दना कर श्रेष्ठीने कहा कि हे गुरु ! आज एक लक्ष द्रव्य का इतना धान्य मिला है इसलिये इसको पका कर इस में विष मिला कर इस अन्न का भक्षण कर कुटुम्ब सहित मरजाने का विचार किया है क्यों कि ऐसे दुष्काल में जीने के बनि-. स्वत मरजाना ही अधिक उत्तम है । यह सुनकर गुरुने कहा कि - हे श्रेष्ठी ! कल इस नगरी में बहुतसा धान्य आयगा और दुष्काल का नाश हो जायगा इसलिये तू मरने का विचार त्याग दे | गुरु के कहेनुसार दूसरे दिन ही चारों ओर से बहुतसा धान्य आया जिस से सर्वत्र सुकाल हो गया । यह देख कर श्रेष्ठीने वैराग्य होजाने से दीक्षा ग्रहण की । वज्रसेनसूरि भी चार गण का स्थापन कर जिनशासन के प्रभावक हुए । (यह चरित्र आवश्यक निर्युक्ति की बड़ी टीका में अधिक विस्तार से वर्णित है जहां से पढ़ा जासकता है )
श्री वज्रस्वामी के इस मनोहर चरित्र को हृदयरूपी कमल में भ्रमर के समान धारण कर समग्र सगुणों के सारभूत सिद्धान्त के पाठ के विषय में भव्य प्राणियों को निरन्तर प्रयास करना चाहिये ।
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इत्युपदेशप्रासादे द्वितीयस्तंभे चतुर्विंशतितमं
व्याख्यानम् ॥ २४ ॥