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श्री उपदेशप्रासादभाषान्तर :
ब्राह्मणने अति आदरसत्कारपूर्वक वह अन्न, जल आदि उस मुनि को भेट किये। उसने विचारा कि इस श्रावकों के बनिस्वत यह यतिरूप पात्र अधिक उत्तम है । कहा भी है कि
मिथ्यादृष्टिसहस्रेषु, वरमेको ह्यणुव्रती । अणुव्रती सहस्रेषु, वरमेको महाव्रती ॥ १ ॥ महाव्रतिसहस्रेषु, वरमेको हि तात्त्विकः । तात्त्विकेन समं पात्रं, न भूतं न भविष्यति ॥२॥
भावार्थः – हजार मिध्यादृष्टियों से एक अणुव्रती श्रावक अधिक श्रेष्ठ है, हजार अणुव्रतियों से एक महाव्रती साधु अधिक श्रेष्ठ है, हजार महाव्रतियों से एक तत्त्ववेत्ता मुन अधिक श्रेष्ठ है, तत्ववेता के सदृश सत्पात्र इस जगत में न कोई हुआ है और न होगा ।
फिर वह ब्राह्मण कुछ समय पश्चात् आयुष्य पूर्ण होने से मर कर सुपात्र दान की महिमा से पहले देवलोक में देवता हुआ । वहां से आयुष्य पूर्ण कर चव कर राजगृह नगरी में श्रेणिक राजा का नंदिषेण नामक पुत्र हुआ । उस के युवावस्था को प्राप्त होने पर राजाने उसका पांच सो राजकन्याओं के साथ विवाह किया । उन स्त्रियों के साथ दोगुं दक देव के समान वह मनोहर भोगविलासरूप सुखसागर में मग्न रहने लगा ।