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व्याख्यान २६ :
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महेनत के बदले में देउंगा । ऐसी शर्त कर उस जैन ब्राह्मण को उस कार्य में सहायक बनाया । अनुक्रम से लक्ष ब्राह्मणों का भोजन हो जाने पर उसने उस जैन ब्राह्मण को बचे हुए चावल, घी आदि दिया । उसको लेकर उस गरीब ब्राह्मणने विचार किया कि-यह वस्तु न्यायोपार्जित है, शुद्धमान है
और प्रासुक है अतः किसी सत्पात्र को इसका दान करूं तो यह उत्तम फल को देनेवाली होगी । शास्त्र में भी कृपावंत परमात्माने कहा है कि-नायागयाणं कप्पणिज्जायं अणं पाणाइ दव्वाणं पराए भत्तीए अप्पाणुग्गहबुद्धिए संजयाणं अतिहिसंविभागो मूक्खफलो--न्याय से उपार्जन किये हुए, और कल्पनीय अन्न पानी आदि द्रव्य को उत्कृष्ट भक्ति से आत्मा की अनुग्रह बुद्धि से यदि संयमधारी साधु को अतिथिसंविभाग द्वारा दिये हों तो वह मोक्ष फल का देनेवाला होता है। ऐसा विचार कर उसने कई दया तथा ब्रह्मचर्यादि के धारक गुणी साधर्मियों को भोजन के लिये निमंत्रण किये। भोजन के समय कोई महाव्रतधारी मुनि मास. क्षपण के पारणे के लिये वहां पधारे । उनको देख कर उस
१ यहां चोभंगी है । न्यायागत द्रव्य को न्याय में काम लाना, न्यायागत द्रव्य को अन्याय में काम लाना; अन्यायागत द्रव्य को न्याय में काम लाना और अन्यायागत द्रव्य को अन्याय में काम में लाना । इन में प्रथम भाग विशुद्ध हैं।