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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : नाहं स्वर्गफलोपभोगतृषितो नाभ्यर्थितस्त्वं मया संतुष्टस्तृणभक्षणेन सततं साधो न युक्तं तव । स्वर्ग यान्ति यदि त्वया विनिहता यज्ञे ध्रुवंप्राणिनो यज्ञं किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा बान्धवैः॥
भावार्थ:-ये पशु कहते हैं कि हे राजा! हमको स्वर्ग के भोग भोगने की तृष्णा नहीं है, न हमने उसके लिये तुम को प्रार्थना ही हैं। हम तो निरन्तर तृण के भक्षण से ही संतुष्ट हैं अत: तुमको हमें हनन करना अयोग्य है । यदि तुम्हारे द्वारा यज्ञ के लिये मारे हुए प्राणी अवश्य स्वर्ग में जाते हो तो तुम तुम्हारे माता, पिता, पुत्र और बन्धु आदि द्वारा यज्ञ क्यों नहीं करते?
यह सुन कर राजाने क्रोधित होकर धनपाल से कहा कि-अरे यह तू क्या कहता है ? इस पर धनपालने फिर से निःसंकोच कहा कि-हे स्वामी ! मैं सत्य कहता हूँ क्यों कियूपं कृत्वा पशून् हत्वा, कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्येवं गम्यते स्वर्गे, नरके केन गम्यते ? ॥२॥
भावार्थ:-हे राजा ! यज्ञस्तंभ रोप कर, पशुओं का वध कर तथा रुधिर का किचड़ कर यदि स्वर्ग में जाया जा सकता हो तो फिर नर्क में कोन जायगा ?