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व्याख्यान २४ :
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गुरु तो प्रत्येक भव में सुख देनेवाले है । ऐसा विचार कर वह उसके पास नहीं गया । फिर जब पिताने अपना ओषा (रजोहरण) बतला कर कहा कि-ये ले तो वह दौड़कर उसके पास चला गया और पिता का ओषा ले लिया । इससे वह बालक उसको दे देना निश्चय हुआ अतः सुनन्दाने भी वैराग्य प्राप्त होजाने से दीक्षा ग्रहण की । वज्रकुमारने भी तीन वर्ष की आयु में ही चारित्र ग्रहण किया।
एक बार विहार करते हुए मार्ग में सर्व साधुओं में से वज्रकुमार की परीक्षा करने के लिये उनके पूर्व भव के मित्रने जो कि देवता हो गया था जल की वृष्टि की । निरन्तर वर्षा होने से सर्व साधु वृक्ष के नीचे खड़े होकर स्वाध्याय ध्यान करने लगे । तत्पश्चात् उस देवने एक बड़ा सार्थ बना कर वहां आकर पड़ाव डाला और आहार के लिये मुनि को विनंति करने गया। इस पर गुरुने उत्तर दिया कि इस समय अन्य किसी को आहार की इच्छा नहीं है परन्तु यह वज्रमुनि बालक है अतः इसको लेजाओ । गुरु की आज्ञानुसार वज्रमुनि उस सार्थवाह के साथ आहार लेने गया । वह देव घेवर बना कर मुनि को भेट करने लगा परन्तु जब मुनिने उसकी ओर देखा तो उसकी अनिमेष दृष्टि को देख कर उसे देवता जाना, आहार लेने से मना किया। यह देखकर प्रसव हो देवने कहा कि-हे मुनि! मैं तुम्हारा परभव का मित्र देवता