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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : शिकार में हरिणी का वध किया तब मेरा काव्य सुनकर क्रोधित हो मेरी एक आंख निकाल लेने का तुमने विचार किया था और सरोवर के वर्णन के समय दूसरी आँख भी निकाल लेने का निश्चय किया था । इस के पश्चात् भी सर्व कुटुम्ब का निग्रह करने का विचार किया था अतः भाव से ग्रहण किये मेरे दोनों नेत्र मुझे वापस दीजिये। यह सुन कर राजाने प्रसन्न हो धनपाल को क्रोड़ द्रव्य दिया और कहा कि-तू श्राक्क होने से सर्वज्ञपुत्र हुआ यह न्याययुक्त है।
एक बार धनपाल का चित्त व्यग्र देख कर भोजराजाने इस का कारण पूछा। इस पर उसने उत्तर दिया कि-मैं अभी युगादीश का चरित्र बना रहा हुँ इस लिये मन में व्यग्रता रहती है। फिर उस चरित्र के पूर्ण होने पर राजाने उसको सुनना आरम्भ किया। उसका अद्भुत रस सुन कर राजाने विचारा कि-इस का अर्थरूपी रस भूमि पर पड़ जाय इस लिये पुस्तक के नीचे एक बड़ा स्वर्णथाल रखादिया। इस प्रकार उस चरित्र के रसपान करते हुए राजा को कई रात दिन व्यतीत हो गये। अन्त में उस चरित्र के पूर्ण होने पर राजाने धनपाल से कहा कि-हे पंडित ! यदि तू इस ग्रन्थ में विनीता नगरी के स्थान पर अवन्ती नगरी, भरत चक्री के स्थान पर मेरा नाम और आदीश्वर के स्थान पर महादेव का नाम स्थापन कर दे तो यह ग्रन्थं स्वर्ण और सुगन्धी समान अति