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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : व्याख्यान २३ वां पांचवे मिथ्यादृष्टिसंस्तव नामक दूषण के विषय में। मिथ्यात्विभिः सहालापो, गोष्ठी परिचयस्तथा । दोषोऽयं संस्तवो नाम, सम्यक्त्वं दूषयत्यसौ ॥१॥
भावार्थ:-मिथ्यात्वीयों के साथ बातचीत, गोष्ठी तथा परिचय करना संस्तव नामक दोष कहलाता हैं। यह दोष समकित को दूषित करनेवाला है।
मिथ्यात्वियों के साथ परिचय करने से समकित को दोष लगता है। उनकी क्रियाओं को सुनने से तथा देखने से स्याद्वाद मत को नहीं जाननेवाले मंद बुद्धिवाले पुरुष का समकित से भ्रष्ट होना सम्भव है परन्तु स्याद्वाद के सम्पूर्ण स्वरूप के ज्ञाता को यह दोष नहीं लगता क्यों कि कई समकितवान् मिथ्यात्वीयों से परिचय होने पर भी गुण को ही ग्रहण करते हैं और अपने समकित को विशेषतया स्फूटतर-अति निर्मल करते हैं। इस पर धनपाल कवि का दृष्टान्त प्रसिद्ध है :
धनपाल कवि का दृष्टान्त. धारानगरी में लक्ष्मीधर नामक एक ब्राह्मण था जिस के धनपाल और शोभन नामक दो पुत्र थे। उस ब्राह्मण के