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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
दिया और अन्य साधुओं को वहां जाने का निषेध किया । गुरु के संसर्ग से शोभन मुनि भी बड़े विद्वान हो गये । एक वार शोभन मुनि गोचरी के लिये गये तो उनका चित्त श्री जिनेश्वर की स्तुति रचने में व्यग्र होने से किसी श्रावक के घर से आहार ले कर भरे हुए पात्र झोली में रखने के बदले पास में रक्खे हुए पाषाण पात्र को झोली में रख कर गुरु के पास पहुँचे । आहार के समय में झोली में पाषाण पात्र को देख कर शोभन मुनि की स्पर्धा करनेवाले अन्य मुनि उनकी हँसी उड़ाते हुए बोले कि -अहो ! आज शोभन को तो बड़े लाभ का उदय हुआ है । गुरुने शोभन को इसके विषय में पूछा तो उसने सब बात सत्य सत्य बतला कर अपने बनाये हुए जिनस्तुति के काव्य कह सुनाये, जिन को सुन कर गुरु अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
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एक बार गुरुने शोभन को कहा कि - हे वत्स ! तू धारानगरी जा कर जैन धर्म के द्वेषी तेरे भाई धनपाल को प्रतिबोध कर । गुरुआज्ञा शिरोधार्य कर शोभन मुनि अवंती प्रदेश को गये । नगर में प्रवेश करते ही धनपाल सामने मिला । उसने मुनि को देख कर हँसी उड़ाते हुए कहा कि" गर्दभदन्त भदन्त नमस्ते - हे गधे के सदृश दान्तवाले भगवंत ! तुमको नमस्कार हैं ।" यह सुन कर मुनिने कहा कि" मर्कटका स्वयस्य सुखं ते बन्दर से मुंहवाले हे भाई ! तुम सुखी तो हो ? " इस प्रकार मुनि के वचन की चतुराई