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व्याख्यान १७ :
: १५७ : व्याख्यान १७ वां
वचनशुद्धि विषे जीवाजीवादितत्त्वानां, प्ररूपकं सदागमम् । तद्विपरीतं वदेन्नाथ, सा शुद्धिर्मध्यगा भवेत् ॥१॥
भावार्थ:-जीव, अजीव आदि तत्वों की प्ररूपणा करनेवाले आगम में जो उनका स्वरूप कहा गया हो उसी प्रकार समझना चाहिये । उससे विपरीत नहीं करना, उसका नाम वचनशुद्धि हैं। सद्दानेन गृहारंभो, विवेकेन गुणवजः। दर्शनं मोक्षसौख्यांगं, वचःशुद्धयैव लक्ष्यते॥१॥
भावार्थ:-गृहस्थाश्रम सद्दानद्वारा, गुणसमूह विवेकद्वारा और मोक्षसुख के अंगभूत दर्शन (समकित) वचन की शुद्धिद्वारा दिखाई देता है अर्थात् दान, विवेक और वचनशुद्धिद्वारा ही गृहस्थपन, गुणसमूह और समकित के होने का निश्चय होता है।
इस प्रसंग पर संप्रदायागत कालिकसरि का प्रबन्ध प्रशंसनीय है:
कालिकाचार्य का दृष्टान्त . दत्तराजा के मामा कालिकसरि के समान महापुरुष