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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तरः रामने उस पुरुष से उसका वृत्तान्त पूछा । इस पर उसने उत्तर दिया कि-हे स्वामी ! सुनिये ।
. दशपुर नामक नगर में वज्रकर्ण नामक महापराक्रमी राजा हैं, वह सर्व गुणसम्पन्न होते हुवे भी चन्द्र के मृगया (शिकार ) के व्यसन से दूषित है। एक बार वह कई शिकारियों (पाराधीयों) को साथ लेकर वन में गया और एक सगर्भा हरिणी को शरद्वारा बेंध दिया जिससे उसके उदर से गर्भ निकल कर पृथ्वी पर आगिरा | उस गर्भ को छिपकली की काटी हुई पूंछ की तरह तड़पते हुए देखकर उस वज्रकर्ण का हृदय दया से द्रवित हो आया और वह उसकी आत्मा की निन्दा करने लगा कि-अहो ! मैने नरक जाने योग्य पापकर्म उपार्जन किया है । इत्यादि । अपनी आत्मा की निन्दा करता हुआ वह राजा निर्दयपन का त्याग कर उस वन में इधर उधर भटक रहा था कि उसने शिला पर बैठे हुए शान्त एवं दान्त मुनि को देखा । उनको प्रणाम कर राजाने पूछा कि-हे महात्मा! इस अरण्य में आप क्या करते हैं ? मुनिने उत्तर दिया कि मैं आत्महित करता हूँ। यह सुनकर राजाने कहा-हे स्वामी! मुझे भी आत्महित का मार्ग बतलाइये । इस पर मुनिने कहा कि-हे राजा ! सम्यग्दर्शनपूर्वक हिंसादिक का त्याग करना ही आत्महित है। उसमें सम्यकत्व का स्वरूप इस प्रकार है ।