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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : एके केचिद्यतिकरगतास्तुंबिकाः पात्रलीलां। गायन्त्यन्ते सरसमधुरं शुद्धवंशे विलग्नाः॥ अन्ये केचियथितसुगुणा दुस्तरं तारयन्ते। तेषां मध्ये ज्वलितहृदया रक्तमन्ये पिबन्ति ॥१॥
भावार्थ:-तुम्बे तो सब ही एक ही प्रकार के होते हैं परन्तु उन में से कुछ तुम्बे तो मुनि के हाथ में जाकर पात्र की शोभा को प्राप्त करते हैं, कुछ ( गवैया के हाथ में जाकर ) शुद्ध बांस के साथ जोड़े जाकर सरस और मधुर गायन करते हैं, कुछ उत्तम डोरी से गुंथे नाकर दुस्तर समुद्र से मनुष्य को तारते हैं और उन्हीं में कुछ तुम्बे ( कापाली के हाथ में जाकर ) ज्वलित ( दुष्ट ) हृदय( मध्य भाग )वाला होकर लोहू का पान करता है अर्थात् वैसे कार्य में काम आता है।
एक बार उस श्रीधर के घर में चोरोंने प्रवेश कर उसका सर्व धन चोरलिया इस से श्रीधर को अत्यन्त खेद हुआ। अन्त में उसकी ऐसी स्थिति हो गई कि उसके घर में कोई वस्तु न बची और भोजन की भी मुश्किल गुजरने लगी। अन्त में अत्यन्त दुखी होने से उसने अट्ठम कर सर्व देवताओं की आराधना की। तीसरे दिन देवताओंने कहा कि-अरे! तूने हमारा स्मरण किस लिये किया है ? श्रीधरने उत्तर