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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तरः मनुष्यों को एक एक अरतलाशी ले कर निकालना शरू किया । सर्व स्त्रीयों के हाथ तथा वस्त्र के छोर ढूंढ़ते ढूंढ़ते उक्त गोपपुत्री के ओढ़नी के छोर से वह मुद्रिका ढूंढ निकाली। उस मुद्रिका को ले कर अभयकुमारने उससे पूछा कि-तूने यह राजा की मुद्रिका किस प्रकार चुराई ? इस पर उसने कानों पर हाथ धर कर कहा कि मैं इसके विषय में बिलकुल अनभिज्ञ हुँ । उसके उत्तर तथा उसकी आकृति से अभयकुमारने उसको निर्दोष जान कर विचार किया कि-यह गोपपुत्री चौर नहीं है परन्तु सब कार्य इस आसक्त हुए पिता का ही जान पड़ता हैं । इस लिये अभयकुमारने उसको राजा के पास ले जा कर कहा कि-हे राजा ! इसने मुद्रिका नहीं चोरी है किन्तु आपके चित्त को ही चुराया है अतः मुद्रिका की बातचीत करना व्यर्थ है । राजाने अपना दोष स्वीकार कर उसके मातपिता को बुला कर उसके साथ विवाह कर उसे अपनी पट्टरानी बनाया। - एक बार राजा तथा दुगंधा पासे का खेल खेलने लगे जिसमें यह शर्त ठहरी की जीतनेवाला हारनेवाले के पृष्ठ पर स्वार हो । उसमें दुर्गंधा की विजय हुई इससे वह राजा के पृष्ठ पर शंका रहित आरूढ़ हुई । कहा भी है कि:
कुलं स्वकृत्यैरकुलप्रसूतः, सन्मानितोऽपि प्रकटीकरोति ।