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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
रहित दृढ़ निश्चयवाला जान कर शासनदेवीने उसको फिर से मणि प्रदान की जिससे वह फिर समृद्धिवान हो गया और परभव में आसन्न सिद्ध हुआ अर्थात् थोड़े ही समय में सिद्धि पद को प्राप्त हुआ ।
हे भव्य जीवों ! शास्त्रनिंद्य ऐसे आकांक्षा दोष का सेवन करनेवाला मनुष्य श्रीधर के समान हास्य का पात्र बनता है, अतः जिनशासन को जाननेवाले को इस दोष से दूर रहना चाहिये ।
इत्यब्ददिन परिमितोपदेशप्रासादवृत्तौ द्वितीयस्तंभे विंशतितमं व्याख्यानम् ॥ २० ॥
व्याख्यान २१ वां तीसरा विचिकित्सा दोष
देशतः सर्वतो वापि कृतक्रियाफलं प्रति । क्रियते हृदि सन्देहो, विचिकित्साभिधः सकः ॥१॥
'भावार्थ: - की हुई धर्मक्रिया के फल के विषय में देश से अथवा सर्व से मन में सन्देह करना विचिकित्सा नामक दोष कहलाता है ।
की हुई खेती आदि लौकिक क्रिया के फल के समान सामायिक आदि धर्मक्रिया करने का फल मुझे प्राप्त होगा नहीं ? इस प्रकार की शंका करना विचिकित्सा कहलाती है ।