________________
व्याख्यान २० :.
: १८१ : गजपुर में श्रीधर नामक एक वणिक रहता था। वह स्वभाव से ही भद्रिक था । उसने एक वार एक मुनि द्वारा जैन धर्म को श्रवण किया । तभी से वह सदैव श्री जिनेश्वर की त्रिकाल पूजा करने लगा । एक वार उसने श्री प्रभु को धूप कर अभिग्रह किया कि-यह धूप जब तक जलती रहेगी तब तक मैं बिना हिलेडुले निश्चल बैठा रहूँगा। देवयोग से वहां एक सर्प निकला तिस पर भी श्रीधर निश्चल हो बैठा रहा। सर्प उसके पास काटने को जाता है कि श्रीधर के सत्व से तुष्टमान हुई देवीने उस दुष्ट सर्प को हटा कर उसके मस्तक की मणि लेकर श्रीधर को दे दी, जिस मणि के प्रभाव से श्रीधर के घर में वृष्टि से उत्पन्न हुई लता के समान लक्ष्मी की वृद्धि होने लगी। ____ एक बार उसके कुटुम्ब में किसी प्रकार की व्याधि आने से किसीने उससे कहा कि-गोत्रदेवी की पूजा करने से गोत्र में कुशलता रहती है। यह सुन कर भद्रिक श्रीधर ने गोत्रदेवी की पूजा की और देवयोग से व्याधि की निवृत्ति हो गई । फिर एक बार उसके खुद के एक व्याधि उत्पन्न हुई तो किसीके कहने से उसने यक्ष की पूजा की। इसी प्रकार लोगों के कहने से शान्ति के लाभ लिये तथा भावि रोग की निवृत्ति के लिये वह संदैव अन्य अन्य देवों की पूजा करने लगा। भावुक जन सत्संग से गुण और असत्संग से दोष को प्राप्त करते हैं। कहा भी है कि: