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व्याख्यान १९ :
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होगा। क्यों कि सबका प्रदेशपन तो एकसा ही है। इस लिये जैसे रेती के हजारों कण में तैल नहीं होता तो फिर वह तैल आखिरी कण में किस प्रकार हो सकता है ? अतः तेरे मानने के द्वारा तो जीव का अभाव ही सिद्ध होगा। वह अभाव तो तू नहीं मानता है इस लिये वह अर्थ तेरे लिये भी इष्ट नहीं है। शिष्यने प्रश्न किया कि-हे गुरु ! आपने जो यह युक्ति बतलाई है इससे तो आगम में बाधा आती है। क्यों कि अभीके आये हुए सूत्र में एक दो प्रदेश में जीव का निषेध कर अन्तिम प्रदेश में ही जीवपन कहा गया है तो फिर आप जगबन्धु जिनेश्वरद्वारा कहे हुए सूत्र का क्यों कर निषेध करते हैं ? गुरुने उत्तर दिया किहे शिष्य ! यदि तू सूत्र को प्रमाण मानता हो तो सुन, उसी में कहा है कि " परिपूर्ण लोकाकाश प्रदेशतुल्य जीव में जीव संज्ञा है " इस लिये सूत्र को प्रमाण माननेवाले को तो इसमें नवीन कुयुक्तियें करना ही नहीं चाहिये । सर्वे समुदायरूप जीव के प्रदेश जीव है। तंतु के समुदाय को ही वस्त्र कहते हैं। परन्तु एक दो तंतु में समस्त यह नहीं होता। इस लिये तेरी शंका का स्थान नहीं रहता । इस प्रकार गुरु के समझाने पर भी वह तिष्यगुप्त नहीं समझा तो गुरुने उसे गच्छ बाहर कर दिया।
फिर वह तिष्यगुप्त विहार करता हुआ एक बार आमलाकल्पा नामक नगरी में गया और वहां ग्राम के बाहर