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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : व्याख्यान २० वां अब आकांक्षा दोष को स्पष्ट किया जाता हैदेशतः सर्वतो वाप्यभिलाषः परदर्शने । स आकांक्षाभिधो दोषः,सम्यक्त्वे गदितो जिनैः॥१ - भावार्थ:-देश से अथवा सर्व से अन्य दर्शनों में अभिलाषा होने को जिनेश्वरने समकित में आकांक्षा नामक दोष होना बतलाया है। . किसी दर्शन में कोई जीवदया आदि का उत्तम विषय देख कर उस दर्शन की अभिलाषा हो जाता वह आकांक्षा कहलाती है। उस में देश से आकांक्षा अर्थात् किसी एक ही दर्शन की अभिलाषा होना और सर्व से आकांक्षा अर्थात् सर्व पाखंडी धर्मों की अभिलाषा होना । जैसे बौद्ध धर्म अच्छा है क्योंकि उस में किसी को भी कष्ट पहुंचाना मना है, इसी प्रकार कपिल और द्विजादिक के धर्म में यहां विषयसुख का भोगनेवाला परभव में भी सुख को प्राप्त करता है ऐसा कहा गया है इसलिये वह धर्म भी उत्तम है । इस प्रकार के विचारों से एकान्त सुख प्राप्त करानेवाले जैन दर्शन को दूषित करते हैं । इस का भावार्थ जितशत्रु राजा और उस के मंत्री के दृष्टान्त से स्पष्ट हैजितशत्रु राजा और उसके मंत्री की कथा