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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : जीवन का स्थापन करनेवाला छल्लूरोह हुआ। ७ पांचसो चोराशीवें वर्ष में गोष्ठामाहिल हुआ। ८ छसो ननावें वर्ष में सहस्रमल्ल नामक दिगंबर मत को स्थापन करनेवाला सर्वविसंवादी हुआ। ९ अन्त में प्रतिमा का खंडन करनेवाला लुंकामति उत्पन्न हुआ ।*
इस प्रकार एक एक वाक्य के उत्थापनार भी निह्नव गिनाये हुए होने से जिनेश्वर भगवन्तद्वारा बतलाये सूक्ष्म बादर स्वरूप में किंचित्मात्र भी शंका नहीं करना चाहिये । क्यों कि एक अर्थ में संदिग्धपन होने से वह कथक सर्वज्ञपन के प्रत्यय के योग्य नहीं रहतें इस लिये इस प्रकार की मिथ्या कल्पना करनेवाले को मिथ्यादर्शन प्राप्त होता है जो भवभ्रमण के हेतुभूत है । अपितु यत्रापि मतिदौर्बल्यादिभिर्मोहवशात् क्वचित् । संशयो भवति तत्राप्रतिहतेयमर्गला ॥ १ ॥
भावार्थ:-तीर्थकर के वचन के विषय में जो मति की दुर्बलतादि किसी भी हेतु से अथवा किसी स्थान पर मोह के वश से संशय होता है वह समकित द्वार की अप्रतिहत अर्गलारूप है । इस विषय पर सिद्धान्त में कहा है कि
* इस संख्या आदि में प्रति की अशुद्धि के कारण भूल होना संभव है अतः अन्यत्र यथार्थ हो उस प्रकार गिनना चाहिये।