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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : एक उद्यान में ठहरा । वहां मित्रश्री नामक रहता था। उसने उसको निहव जानकर प्रतिबोध करने के हेतु से उसके पास जाकर निमंत्रण दिया कि आज आहार लेने के लिये तुम्हें खुद मेरे घर आना चाहिये । यह बात अंगीकार कर तिष्यगुप्त मित्रश्री के घर गया। मित्रश्रीने उसको बहुमानपूर्वक आसन पर बिठा कर उसके सन्मुख अत्यन्त उत्साह
और आडम्बर से उत्तम प्रकार के अनेक भक्ष, भोज्य, अन्न, पान, व्यंजन, वस्त्र आदि का समूह रक्खा फिर उसने सर्व में से अन्तिम एक एक अवयव लेकर उसके पात्र में रक्खा अर्थात् पक्कान, शाक आदिका एक एक कण कण रक्खा, दाल, कढी, जल आदि का एक एक बिन्दु रक्खा, और वस्त्रों में से एक एक अन्तिम तंतु निकाल कर रक्खा । फिर उस श्रावकने नमस्कार किया और अपने सर्व बंधुजनों को कहा कि-तुम इस साधु को वन्दना करो । मैंने आज इनको परिपूर्ण प्रतिलाभ्या है। मैं आज मेरी आत्मा को धन्य
और पुण्यवान् मानता हूं क्यों कि गुरु स्वयं ही मेरे घर पर पधारे हैं । यह सुन कर तिष्यगुप्त बोला कि-हे श्रावक ! ऐसा एक एक कण देकर हँसी की है यह तुझे योग्य नहीं है। श्रावकने उत्तर दिया कि-हे पूज्य ! तुम्हारा ही यह मत है। वह यदि सत्य हो तो इन लड्डु तथा भात आदिके अन्तिम अवयव से आपकी तृप्ति होना चाहिये और यह एक अन्तिम वस्त्र तंतु शीत का रक्षण करनेवाला होना