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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तरः
नामक एक शिष्य था | एक बार आत्मप्रवाद नामक पूर्व का अभ्यास करते हुए उसके पढ़ने में इस प्रकार सूत्रालापक आया कि "एगे भंते जीवप्पएसे जीवे त्ति वत्तवं सिया १ नो इट्ठे समट्ठे, एवं दो तिन्नि संखिज्जा असंखिज्जा वा एगप्पएसुणं वि जीवे ? नो जीवे त्ति वत्तवं । कहं १ जम्हा कसिणे पङिपुण लो गागासपएस तुल्ले जीवे जीवे त्ति वत्तवं सिया इत्यादि - हे भगवन् | जीव के एक प्रदेश में, तीन वक्तव्यता हो सकता है ? प्रभु ने कहा नहीं, यह अर्थ समर्थ - योग्य नहीं है । इस प्रकार दो प्रदेश में, तीन प्रदेश में, संख्याता प्रदेश में, असंख्याता प्रदेश में, अन्त में एक प्रदेश में ऊणा ऐसे सर्व प्रदेश में जीव कहला सकते है या नहीं ? प्रभुने कहा- नहीं । यह अर्थ भी समर्थ नहीं अर्थात वह जीव नहीं कहला सकता है । तो जीव कब कहलाता है ? प्रभुने कहा कि- परिपूर्ण लोकाकाश के प्रदेश जितना प्रदेश एकेक जीव का है, उस समग्र प्रदेश को " जीव" कहते हैं- आदि, इस प्रकार पढ़ते हुए तिष्यगुप्त को ऐसी शंका हुई कि जीव के एक अन्तिम प्रदेश में ही जीव संज्ञा का होना जान पडता है । शेष सर्व प्रदेश में जीव संज्ञा नहीं है ऐसा यह सूत्र स्पष्ट बतलाता है । ऐसे अपने मत को वह दूसरों के पास भी पुष्टि करने लगा । यह जान कर गुरुने मित्ररूप हो कर उससे कहा किहे शिष्य ! जो तू जीव के एक दो आदि प्रदेशों में जीवपन मानता है तो अन्तिम प्रदेश में भी जीवपन सिद्ध नहीं