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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : व्याख्यान १९ वां
समकित के पांच दूषण शंका कांक्षा विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् । तत्संस्तवश्च पञ्चापि, सम्यक्त्वं दुष्यन्त्यमी ॥१॥
भावार्थ:-शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा और उसका संस्तव (परिचय आदि )-ये पांच समकित के दूषित करनेवाले ( अतिचार ) हैं ।
श्रीअरिहंत के प्ररूपित धर्म के विषय में सन्देह बुद्धि रखना, शंका कहलाती है। वह देश से और सर्व से दो प्रकार की है। देश शंका अर्थात् जिनेश्वरप्ररूपित सर्व पदार्थो में श्रद्धा रक्खे किन्तु अमुक एक या दो स्थान पर शंका करे । जैसे कि-जीव है यह बात सो सच है परन्तु वह सर्वगत होगा या असर्वगत ? सप्रदेशी होगा या अप्रदेशी? आदि एक आद्यअंश में शंका करना यह देश से शंका होना कहलाता हैं और सर्व से शंका अर्थात् तीर्थकरभाषित सर्व पदार्थों में शंका करना ये दोनों प्रकार की शंका सम्यक्त्व के लिये दूषणरूप है।
शंका पर दो बालकों का दृष्टान्त किसी ग्राम में किसी स्त्री के दो पुत्र थे। जिनमें से एक