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व्याख्यान १८ :
: १६५ : देवो जिणंदो गयरागदोसो, गुरु वि चारित्तरहस्सं कोसो। जीवाइ तत्ताण य सदहाणं, सम्मत्तमेवं भणियं पहाणं ॥१॥ जस्सारिहंते मुणिसत्तमेसु, मोत्तु न नामेइ सिरो परस्स । निव्वाणसुक्खाण निहाणठाणं, तस्सेव सम्मत्तमिणं विसुद्धं ॥ २ ॥
भावार्थः-रागद्वेषवर्जित श्रीजिनेश्वर को देव, चारित्ररहस्य के निधि समान साधुओं को गुरु और जीवादिक नव तत्वों के शुद्ध स्वरूप को धर्म जान कर-उनकी सद्दहणा रखना सब से मुख्य समकित कहलाता है। अरिहंत और उत्तम साधुओं को छोड़ कर अन्य किसी को जो मनुष्य मस्तक नहीं झुकाता है उसीको निर्वाण सुख के निधानस्थानरूप यह विशुद्ध समकित प्राप्त हो गया है ऐसा समझना चाहिये।
इत्यादि धर्मोपदेश सुनने से राजा वज्रकर्ण को प्रतिबोध प्राप्त हो गया जिससे उसने गुरु के पास समकित के मूल बारह व्रतों को अंगीकार किया जिसमें विशेषतया जिनेश्वर तथा मुनिराज के अतिरिक्त अन्य किसी को मी नहीं नमने का नियम ग्रहण किया। फिर वह अपने नगर में गया।