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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : श्रोत्रद्वयना कुंडलरूप कर (श्रवण कर) अर्हदादिक दश पद की निरन्तर विनय-सेवा करो कि जिससे शीघ्रतया मोक्षलक्ष्मी तुम्हारे उत्संग में आकर रहे।
इत्यब्ददिनपरिमितोपदेशप्रासादग्रंथस्य वृत्तौ
प्रथमस्थंभे द्वादशं व्याख्यानम् ॥१२॥
व्याख्यान १३ वां
विनयप्रशंसा प्राप्नोति विनयाज्ज्ञानं, ज्ञानाद्दर्शनसंभवः। ततश्चरणसंपत्तिश्चान्ते मोक्षसुखं लभेत् ॥१॥
भावार्थ:-विनय से ज्ञान प्राप्त होता है, ज्ञान से दर्शन-समकित की प्राप्ति होती है, दर्शन से चारित्र की प्राप्ति और चारित्र से अन्त में मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।
श्रुतज्ञान की अभिलाषावाले पुरुषों को तो विशेषतया गुरुजनों का विनय करना चाहिये । विनयपूर्वक ग्रहण किया हुआ श्रुत तत्काल सम्यक् फल की प्राप्ति कराता है, उसके विना फल की प्राप्ति नहीं होती । कहा भी है कि :मातंगसूनोर्वरविष्ठरस्थाद्विद्या
गृहीता फलतिस्म शीघ्रम्। .