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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : __ व्याख्यान १५ वां चोथा तीन शुद्धि नामक द्वार के विषय में मनोवाकायसंशुद्धिः, सम्यक्त्वशोधनी भवेत् । तत्रादौ मनसःशुद्धिः, सत्यं जिनमतं मुणेत् ॥१॥ ___भावार्थ:-मन, वचन और काया की शुद्धि सम्य
त्व का शोधन (शुद्ध) करनेवाली होती है। उसमें से पहिल मन की शुद्धि करना अर्थात् जिनमत को सत्य मानना चाहिये।
"जिनमत " अर्थात जिनेश्वर प्ररूपेल समग्र पदार्थों के भाव को प्रगट करनेवाला द्वादशांगीरूप शास्त्र उसको सत्य मानना और अन्य सर्व लौकिक परतीर्थी शास्त्र-दर्शन असार है ऐसा समझना इसको मनःशुद्धि कहते हैं ।
मनःशुद्धि पर जयसेना का दृष्टान्त उज्जयिनी नगरी में संग्रामशूर नामक राजा राज्य करता था । उस नगरी में वृषभ नामक एक श्रेष्ठि रहता था जिसके जयसेना नामक स्त्री थी। वह समकितवंत तथा पतिव्रता थी। उसकी काफी आयु होने पर भी उसके कोई सन्तान नही हुई तो एक बार उसने उसके पति से कहा कि-हे स्वामिन् ! संतति के लिये तुम एक और विवाह